जन्म से ही शुरू हो जब कहानी संघर्ष की…
कहते है कि हम सब को बनाने वाला वो भगवान एक ही है , उसी ने हर इंसान को बनाया है। हमे जन्म भी माँ की कोख़ से ही मिलता है। माँ को नहीं पता होता की 9 महीने बाद पैदा होने वाली संतान लड़का होगा या लड़की, वो तो कोई भेदभाव नहीं करती। फिर क्यों फर्क आ जाता है उस ख़ुशी में जो एक लड़के के पैदा होने पर और एक लड़की के पैदा होने पर होती है ? क्यों फर्क आ जाता है उन दुआओं में जो एक लड़के और एक लड़की के पैदा होने के लिए की जाती है ? आखिर क्यों आज भी हमारे समाज में लड़की का पैदा होना उतनी ख़ुशी नहीं देता जितना हर्ष एक लड़के के पैदा होने पर होता है। सवाल सीधा है , क्या सच में लड़की पैदा होना कोई अभिशाप है ? क्यों सारी पाबंदियां सिर्फ लड़कियों के लिए हैं ? क्यों हर संघर्ष बस लड़की ही करती है ? क्यों हर बार लड़की घर से निकलते वक़्त अपना दुपट्टा संभाले ? कोई समाज से क्यों नहीं कहता कि वो अपनी नज़रें सम्भाले ?
9 महीने के लम्बे इंतज़ार के बाद अन्ततः एक बच्चे को दुनिया में आँखे खोलने का मौका मिलता है। दुनिया वालों को इंतज़ार बस इसी बात का है कि अभी एक आवाज़ आएगी “बधाई हो ! बेटा हुआ है ” ; पर आवाज़ तो आयी “बधाई हो ! बेटी हुई है ” …… हाँ ! सही सुना, बधाई हो ! बेटी हुई है l एक बेटी का जन्म हुआ है l माँ को ख़ुशी बहुत है , ऐसा नहीं कि पिता खुश नहीं है, ख़ुश तो वो भी है पर अब उसके ऊपर लालन-पालन के अलावा सामाजिक कुरीतियों को निभाने की भी ज़िम्मेदारी बढ़ जाएगी l यूँ तो एक लड़की की ज़िंदगी में कठिनाइयां जन्म से ही शुरू हो जाती है पर बाल्यावस्था के बाद असली संघर्ष शुरू होता है l हर सिक्के के 2 पहलु होते है तो पहले हम एक पहलु की ओर ध्यान देते है।
अब चाहे खेल कूद की बात हो या कहीं आने जाने की लड़की को हमेशा कुछ कदम पीछे ही रखा जाता था , शायद वो फ़िक्र थी या समाज की वो दकियानूसी मानसिकता जो आज भी लड़की को लड़को की तुलना में काबिल नहीं समझते। जो भी हो पर लड़कियों पर पाबंदियाँ शुरू से ही लगती रहती थी।आज भी देश के कई हिस्सों में शिक्षा के मामले में बेटी को प्राथमिकता नहीं दी जाती । हमारा समाज कहता है कि बेटी को शिक्षित होना ज़रूरी नहीं है, उसको तो घर के सब काम आने चाहिए। अगर वो साफ़-सफाई और खाना बनाने के साथ-साथ कढ़ाई-बुनाई भी जानती है तो वो शाबाशी का पात्र बन सकती है पर सिर्फ तब तक जब तक उसमे कोई कमी नहीं निकल देता। देश का एक हिस्सा तो आज भी लड़कियो को उनके अधिकारों से वंचित रख देता है। सवाल यहां भी एक दम सीधा है , क्या किसी के मासूम से बचपन से भेदभाव करना सही है ?

बाल्यावस्था से एक पड़ाव आगे आ कर अब बेटी ने किशोरावस्था में कदम रखा है, अब वो समझदार भी हो रही है। धीरे-धीरे उम्र भी बढ़ रही है और आसपास का माहौल भी बदल रहा है। ज़माने की नज़र और नज़रिये दोनों में फर्क साफ़ दिख जाता है। बेटी अपने घर का पूरा ध्यान रख रही है । यदि परिवार मध्यम वर्गी है तो एक अलग ही माहौल देखने मिलता है। अगर परिवार शिक्षित है फिर तो ठीक पर अगर शिक्षित नहीं है तो बच्ची की शादी बहुत कम उम्र में करवा दी जाती है एक ऐसी ज़िम्मेदारी का हवाला दे कर जिसके हाथो बेटी के सपने बलि चढ़ जाते है। स्कूली शिक्षा पूरा करने के बाद अब बेटी अपने उस सपने की तरफ कदम बढ़ती है जिस जगह वो खुद को देखना चाहती है। परिवार साथ देता है और बेटी चल पड़ती है अपने सपनो को पूरा करने। उसके सपने और उसके बीच में आता है वो माहौल जिसमे रह कर वो अपने सपने पूरे करेगी। तो जब माहौल ऐसा न हो जिसमे बेटी खुली हवा में सांस ले पाए, जहाँ वो जब चाहे तब आ-जा पाए, ऐसा माहौल न हो जिसमे वो खुद को सुरक्षित महसूस कर पाए तब उस बेटी के संघर्ष का एक अलग रूप देखने को मिलता है।
अब एक उम्र पर आ कर बेटी की शादी की चिंता परिवार के चेहरे का रंग उड़ाने लगती है। पिता की ज़िम्मेदारी होती है एक अच्छा सा घर देख कर बेटी की शादी कर देना। फिर क्या, लग जाता है पिता तलाश में और बेटी के सुख के लिए सब कुछ बेहतर देखता है। अच्छा घर मिल गया, लड़का भी अच्छी नौकरी करता है, परिवार भी संपन्न है और हाँ पूरी मेहनत से पढ़ी थी न तो अब तो बेटी नौकरी भी करती है। फिर क्या है ऐसा जो पिता की चिंता बढ़ा रहा है ? अच्छा ! इसका नाम दहेज़ है। ये वो कुरीति है जिसमे एक इंसान जिसने बेटी को जन्म दिया, पाल-पोस कर बड़ा किया, हर छोटी बड़ी ख़ुशी का भी ध्यान रखा, उसको खुद से दूर भेज रहा है एक ऐसी जगह जिससे बेटी बिलकुल अनजान है, और उसके लिए पिता को एक कीमत भी चुकानी पड़ रही है। जिस काम को करने पर भारत के संविधान में सज़ा का प्रावधान है उसे आज भी प्रथा का नाम दिया जाता है। सवाल यहां भी एक दम सीधा है , क्यों शादी में दो परिवारों के बीच के रिश्ते को व्यवहार नहीं व्यापार की नज़र से देखा जाता है ?

क्यों बेटी को शादी से पहले ये बोला जाता है कि तुझे पराये घर जाना है और शादी के बाद उसे सुनने को मिलता है कि ये तो पराये घर से आयी है ? जब मायका भी पराया घर है और ससुराल भी तो लड़की का अपना घर कौनसा है ?
शादी हो कर ससुराल आ गयी अब न यहाँ माँ है और न पापा। ज़िंदगी का एक नया पड़ाव शुरू हुआ और अब बेटी पर नयी ज़िम्मेदारिया बढ़ जाती है | कई बार देखने में आया है कि संयुक्त परिवार में रहने वाली बहु अपनी नौकरी और भविष्य से भी समझौता कर लेती है । बेटी अब सुबह देरी से नहीं जागती। मनचाही चीज़ो के लिए ज़िद भी नहीं करती है, यहाँ पापा नहीं है जिनसे फर्महिश कर दी जाये। फिर यहाँ कौन है जिसके भरोसे वो अपना घर छोड़ कर आयी है? वो है उसका पति और उसका परिवार। यह ज़िम्मेदारी उनकी बनती है कि जिसे वो अपनी बहु बना कर लाये है वो कल तक किसी की बेटी थी, तो अब उसकी खुशियों का ध्यान रखना ज़िम्मेदारी आपकी है। एक छोटा सा सवाल यहाँ ये है कि जिस बहु से बेटी बन कर रहने की उम्मीद करते है क्या उसके लिए सास ससुर माँ बाप की भूमिका निभा सकते है ?

वो एक बेटी थी , फिर वो किसी की पत्नी बनी और किसी की बहु बनी और अब वो किसी की माँ है। ये अंतिम पड़ाव है । एक बेटी अपने जीवन में कई सारी पीड़ा सहन करती है चाहे वो किसी चिंता से होने वाली मानसिक पीड़ा हो या मासिक धर्म और प्रसव में होने वाली शारीरिक पीड़ा… वो सब सहन कर लेती है। अंतिम पड़ाव में जब वो एक माँ का किरदार निभा रही है और उसके तीन बच्चे है जिनको वो बहुत प्यार से पाल रही है। बच्चो को पालने में कोई भेदभाव नहीं करती है वो ,बच्चे छोटे है बोल नहीं पाते है पर ये तो माँ है ये समझ जाती है की बच्चे को क्या चाहिए ; तो क्यों वो ही बच्चे बड़े हो कर बात-बात पे माँ से कहते है ,” तुम रहने दो माँ तुम नहीं समझोगी” ?
पर हर सिक्के के दो पहलु होते है। ठीक इसी तरह एक वर्ग वो भी है जो बेटा और बेटी को समान समझता है, किसी भी काबिलियत में लड़कियों को कम नहीं समझता। वो लोग जो लड़की पैदा होना अपना सौभाग्य मानते है, वो लोग जो इसे अभिशाप नहीं अभिमान समझते है, बिलकुल होते है ऐसे लोग जो दहेज़ के सख़्त ख़िलाफ़ होते है। ऐसे सास ससुर भी होते है जो बहु को बेटी मानते है। ऐसे पति भी होते है जो पत्नी को सच में अर्धांगिनी मानते है, और ऐसे बच्चे भी होते है जो माँ को हमेशा वो प्यार दे पाते है जो वो चाहती है।
ये कुछ वो बातें और सवाल थे जो एक बेटी के जीवनभर के संघर्ष के कुछ अंश को समझाते है, बाकि इससे ज़्यादा कुछ लिख पाऊं इतनी स्याही नहीं है मेरी कलम में ….. खैर “बधाई हो ! बेटी हुई है…….. “
Bahut shaandaar👌🙏
बेटी से ही आबाद हैं, सबके घर-परिवार
अगर न होती बेटियाँ थम जाता संसार !!
बहुत सही ।
अतिउत्तम भैया जी 😊