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Home जनता की आवाज़

क्या हैशटैग की सोशल मीडिया पालिटिक्स बिहार के चुनाव का रूख बदल सकती है?

Ankit pandey by Ankit pandey
October 30, 2020
in जनता की आवाज़, नेता नगरी, राजनीति
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क्या हैशटैग की सोशल मीडिया पालिटिक्स बिहार के चुनाव का रूख बदल सकती है?
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1991 के बाद भारत में आर्थिक उदारीकरण की हवा से अर्थव्यवस्था में भागीदारी में निजी क्षेत्रों को केंद्र में ला दिया और सार्वजनिक क्षेत्र को परिधि के तरफ ढकेल दिया। देश में उत्पादन क्षेत्र नए सिरे से पुर्नपरिभाषित हुआ। जिसके कारण देश की अर्थव्यवस्था में धन का प्रवाह तेज़ी से हुआ और लोगों के सुख-सुविधा में इजाफा हुआ।
मानवीय जीवन में प्रौद्योगिकी के प्रवेश से जीवन में कई चीज़ों में सुधार हुआ। राष्ट्रीय बदलाव के इस कदमताल में बिहार उदासीन बना रहा, वह बदलाव की बेला में स्वयं को एकसार नहीं कर सका।
वास्तव में बिहार के उस दौर के सत्ताधीशों ने अपनी कार्य योजनाओं में आर्थिक विकास से अधिक सामाजिक विकास को तवज्जो दिया। सामाजिक विकास की प्रबल चाह में बिहार सार्वजनिक क्षेत्रों पर ही निर्भर करता रहा, जो लचर नौकरशाही और भ्रष्ट्राचार के कारण आखिरी सांस ले रहा था।
नई अर्थव्यवस्था में बिहार के आर्थिक पिछड़ेपन के लिए लोगों ने भष्ट्राचार और प्रशासन में मौजूद अराजकता को ज़िम्मेदार समझा और पूरे देश में बिहार की गौरवशाली छवि को पिछड़ा बताकर बदनाम किया गया। यहां तक कि राष्ट्रीय मुख्यधारा में बिहारी शब्द को गाली के रूप में तब्दील कर दिया गया।
जबकि देश के अन्य कई राज्य भी आर्थिक उदारीकरण के भेड़-चाल में अपनी स्थिति विकास के पथ पर उस गति से नहीं दौड़ रही थी जितनी उम्मीद की गई थी। बिहार को सामाजिक विकास के साथ-साथ शिक्षा, स्वास्थ्य और अन्य आधारभूत चीज़ों के विकास पर भी ध्यान केंद्रित करना था। जातिवाद पर कड़ा प्रहार करना था आर्थिक विकास की गति को तेज़ करना था।
सत्ता परिवर्तन के साथ बिहार में आर्थिक विकास के लिए जिस आधारभूत ढ़ाचे के निमार्ण पर ध्यान देना था, उसपर ध्यान भी केंद्रित हुआ, जिसकी बड़ाई विश्व बैंक ने भी की लेकिन तमाम राजनीतिक उठापटक में वह विकास जहां तक पहुंचना था, वहां नहीं पहुंच सका।
जिसके कारण शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार के लिए पलायन में कोई कमी नहीं हुई, बाढ़ और कोरोना काल में प्रशासन की बदइंतज़ामी ने सुशासन का वायदा करके आए सत्ताधीशों की कमियों को फिर से जनता के सामने उजागर कर दिया।

LetOpenBihar, #30YearLockDown, #ChooseProgress हैशटैग के सोशल मीडिया कैंम्पेन और आर्थिक विकास को अपनी मुख्य विचारधारा बनाकर अखबारों मे विज्ञापन के ज़रिए नई पार्टी “प्लूरल्स” बनाकर अपनी राजनीतिक दावेदारी प्रस्तुत की है।

बिहार में बंद पड़ी चीनी मिलों, फैक्ट्रियों के अपने दौरे, ग्रासरूट पर लोगों की समस्याओं से रूबरू होकर वह यह बताने की कोशिश कर रही है कि अगर किसी बर्तन में कुछ नहीं रखा है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह खाली है। इस संभावना से इंकार नहीं कर सकते हैं कि उसमें भरी हवा उसे खाली साबित ना होने दे।
सकारात्मक राजनीति के अभाव ने बिहार के जनता में नकारात्मकता भर दी। सकारात्मक चीज़ों के साथ जोर-शोर से काम किया जाए, तो बिहार का पुर्ननिर्माण किया जा सकता है, क्योंकि कितने ही लोगों ने बिहार के ज़मीन पर ही यह किया है। जिसके बेमिसाल उदाहरण दशरथ मांझी और लौंगी भुईंया जैसे लोग हैं, उसको पहाड़ का रास्ता काट देते हैं और नहर तक खोद देते हैं।
राजनीति और मीडिया पंडित “प्लूरल्स” की राजनीतिक दावेदारी को उत्साही युवाओं का झुंड, राजनीतिक अपरिपक्वता और बिना किसी राजनीतिक संघर्ष एंव विचारधारा की पार्टी बताकर खारिज कर चुके हैं। जबकि कोरोना काल में बिहार ने चुनावी समर में डिजटल रैली में सबसे अधिक लाइक “प्लूरल्स” के झोली में ही गिर रही हैं।
हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए तमाम चुनावी पंडित नई-नवेली पार्टी का राजनीतिक मूल्यांकन करने से अक्सर चूक जाते हैं। ज़मीनी सच्चाई यह भी है कि बिहार के लोगों की राजनीतिक चेतना जिसका मूल आधार जातीय अधिक है, इतना अधिक मुखर है कि वह देश-दुनिया के बड़े से बड़े पंडितों को चौका देती है। अक्सर यह सवाल उठता है कि आर्थिक रूप से बदहाल समाज के पास इतनी मजबूत राजनीतिक चेतना कैसे है?
बिहार के लोगों की यही जातीय चेतना जिसे बिहार की राजनीतिक चेतना कहा जाता है, वही “प्लूरल्स” के लिए सबसे बड़ी राजनीतिक चुनौती है। वैसे #30YearLockDown का उनका हैशटैग उनके राजनीतिक प्रतिद्वंदी को कम पर बिहार के लोगों की राजनीतिक चेतना को अधिक झकझोर रहा है।
बिहार के सत्ता के दो बड़े साझेदार इसपर प्रतिक्रिया देने से बच रहे हैं क्यों? उनको पता है निशाने पर उनदोनों का ही कार्यकाल है। वो एक-दूसरे के ऊपर जंगलराज-सुशासनराज के कमियों का ठीकरा फोड़ रहे है लेकिन किसी नए राजनीतिक सवाल जो मूलत: आर्थिक विकास का है उसको लेना नहीं चाहते हैं, वो जानते हैं वो इसमें फंस सकते हैं।
बहरहाल बिहार के चुनाव में हैशटैग की सोशल राजनीति कामयाब हो सकेगी यह देखना रोचक होगा? बिहार के युवाओं के एक तबके और महिलाओं के बीच में अपनी थोड़ी बहुत पहुंच बनाती हुई “प्लूरल्स” पार्टी कितना सफल हो पाती है यह देखना रोचक होगा लेकिन “प्लूरल्स” को अपनी राजनीतिक सफलता के लिए अपने राजनीतिक प्रतिद्वदियों को चुनावी अखाड़े में वाक-युद्ध की पटखनी, तो देनी होगी जिससे “प्लूरल्स” अब तक बच रही है।
बिहार के विधानसभा चुनाव में वाक-युद्ध की पटखनी वह दिव्य अस्त्र है जिसके सहारे कोई भी नेता जनता के दिलो-दिमाग में अपनी जगह बनाता है। गरीबों का मसीहा, सुशासन राज, सोशल इजीनियरिंग, घर-घर मोदी यह वह वाक्य है जो नेताओं को आम जन तक पहुंचने का रास्ता बनाती है और आम जन सत्ता तक का रास्ता बना देती है।

Ankit pandey
Author: Ankit pandey

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