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बिहार चुनाव में जनता को रिझाने के लिए सरकारें क्या क्या वादा कर रही है।

Ankit pandey by Ankit pandey
October 29, 2020
in जनता की आवाज़
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बिहार चुनाव में जनता को रिझाने के लिए सरकारें क्या क्या वादा कर रही है।
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देश को सबसे ज़्यादा सांसद देने के बावजूद क्यों परेशान हैं यूपी-बिहार के मज़दूर?

देश की कुल आबादी का सबसे बड़े राज्य बिहार जिसकी जनसंख्या 9.9 करोड़ है और उत्तरप्रदेश जिसकी जनसंख्या 20.42 करोड़ है। कोरोना काल से उबरने के बाद अपनी सामाजिक अस्मिता के बारे में शायद सोचने को विवश होंगे।

आखिर क्या कारण है कि जो बिहार केंद्रीय राजनीति में 40 सांसदों और उत्तरप्रदेश 80 सांसदों का चयन लोकसभा के चुनाव में केंद्र की सरकार बनाने और गिराने की ताकत रखता है। उसी बिहार और उत्तरप्रदेश के दिहाड़ी मज़दूर पूरे भारत में दो वक्त की रोटी के लिए कोरोना काल में लॉकडाउन के कारण दर-बदर भटक रहे हैं। वे अपने घर वापस लौटने के लिए सड़कों की धूल और चिलचिलाती गर्मी में नंगे पांव हजारों किलोमीटर पैदल चल रहे हैं।

बिहार से मौजूदा केंद्र सरकार में छह मंत्री हैं जिसमें तीन कैबिनेट और दो राज्य मंत्री हैं। वहीं उत्तरप्रदेश से कुल आठ मंत्री है। दोनों ही राज्यों में भाजपा शासित और भाजपा के समर्थन से चलने वाली सरकारें हैं। ज़ाहिर है ये दोनों ही राज्य केंद्रीय मंत्रीमंडल में मजबूत पकड़ रखते हैं। फिर भी इन दोनों राज्य के प्रवासी मज़दूर और उनके परिवारों का सुध लेने वाला अब कोई नहीं है।

क्या इन राज्यों के सांसदों और केद्रीय मंत्रियों से सवाल नहीं किया जाना चाहिए कि आखिर वह उनके लिए क्या कर रहे हैं? क्या उनको अपने राज्यों के इन मज़दूरों के प्रति संवेदनशील नहीं होना चाहिए? क्योंकि वह इन मज़दूरों के परिवारों के वोट पाकर ही लोकसभा में चुनकर पहुंचे हैं। राज्य के सांसदो के केंद्रीय मंत्री बनने के बाद राज्यों के मतदाता उनसे अपनी बेहतरी के आस लगाए बैठें हैं।

इन राज्यों के मज़दूर देश के महानगरों से वापस अपने गाँव-घर पहुंचने के लिए न केवल इधर-उधर भटक रहे हैं। बल्कि ज़रूरत से अधिक पैसे देकर घर लौटने के लिए यातायात का साधन भी खोज रहे हैं। पैसे के अभाव में राष्ट्रीय राज्यमार्गों पर पैदल ही चलकर घर पहुनने की कोशिशों में कभी ट्रेन से तो कभी गाड़ियों की दुर्घटनाओं का शिकार हो रहे हैं। इन दुर्घटनाओं में मरने वाले परिवारों के परिजनों को क्या विशेष आर्थिक मदद नहीं मिलनी चाहिए?

कोरोना विपत्ति के कारण घर लौट रहे प्रवासी मज़दूरों के पलायन को रोकने के लिए दोनों ही राज्य के मुख्यमंत्रियों ने बड़े-बड़े वायदे ही किए हैं। लेकिन योजनाओं के नाम पर उनके पास मनरेगा को छोड़कर कोई बड़ा विकल्प नहीं दिख रहा है। क्या मनरेगा इतनी बड़ी परियोजना है कि वह इन तमाम प्रवासी मज़दूरों की आजीविका के सकट का समाधान कर सके? निश्चित तौर पर वह अकुशल श्रामिकों को फौरी राहत पहुंचा सकती है, मगर सब जानते हैं वह ऊंट के मुंह में जीरा के समान ही है।

कुशल श्रमिकों का क्या? उनके लिए क्या विकल्प है? ज़ाहिर है कुछ समय के बाद दो वक्त के रोटी के लिए इनको फिर से अपने राज्यों से पलायन करना पड़ेगा, क्योंकि महानगरों की तरह यह दोनों राज्य उनको रोज़गार का साधन देने में सक्षम नहीं होगे।

मौजूदा परिस्थिति में सवाल यह भी है कि अगर यह राज्य रोज़गार देने में आत्मनिर्भर नहीं है तो क्या इन मज़दूरों के पलायन दूसरे राज्य में होने पर, कोई बेहतर श्रम नीति के दिशा में सोच रहे हैं। उनके पास दूसरे राज्यों या महानगरों में जाने वाले मज़दूरों के लिए आत्मनिर्भर श्रम नीति है जहां उनके हितों की रक्षा की जा सके और उनको दोयम दर्जे़ का जीवन जीने के लिए विवश होने से रोका जा सके।

अधिकांश प्रवासी मज़दूर जो किसी भी साधन से अपने राज्य लौट रहे हैं, उनका यही कहना है कि अगर उनको अपने राज्य में ही रोज़गार मिले तो वह महानगरों में रोज़गार के लिए नहीं जाएंगे। उनका कहना है कि वो रोटी कमाने ही वहां गए थे, रोटी के लिए ही उनको घर वापस आना पड़ा है और रोटी के लिए ही उनको फिर जाना होगा।

इन राज्यों के लिए मजदूरों का अर्धसत्य यही है कि वह रोटी के लिए दर-बदर भटकने वाले लोग है। बेहतर जिंदगी और आत्मसम्मान उनके लिए दूर की कौड़ी लाने जैसा ही है।

कोरोना संकट से उबरने के बाद इन दोनों राज्यों के मज़दूरों को आने वाले समय में इनकी सरकारें कितना बेहतर जीवन उपलब्ध करा सकेगी, यह एक यक्ष सवाल है। मगर इतना तो तय है कि इन राज्यों के चुनाव में यह चुनावी मुद्दे के रूप में अपनी जगह ज़रूर बना लेगा और राजनीतिक सवाल बनकर तमाम विचारधारा के राजनीतिक दलों के नेताओं के माथे पर पसीना ला देगा।
राजनीतिक सवाल बनते ही वादों और जुमलों का दौर चलेगा और मज़दूर दो वक्त की रोटी के लिए फिर दूसरे राज्यों और महानगरों के तरफ  ट्रेनों के डब्बों में धक्के खाते हुए अपने आत्मसम्मान की गठरी को पतलून के जेब में डालकर अपना पसीना बहा रहे होंगे। पीयूष मिश्रा का लिखा गीत “एक बगल में चांद होगा एक बगल में रोटियां” उनके जीवन का वह सच हो चला है जिसे वे बदल नहीं सकते हैं।

Ankit pandey
Author: Ankit pandey

Tags: bihar election 2020bihar govtbihar labourBihar Newsbiharijanta ki awazJDU
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